मैं वो शाम हूँ जो गुज़र गई..तेरी सुबह से नहीं कोई वास्ता
मैं वो सफ़र नहीं जो तू करे.. है कईं क़ाफ़िलों का फ़ासला
मैं सहमा सहमा ख्याल हूँ.. भीगा हुआ, उलझा हुआ
तेरे ख़्वाब में भी आने का.. है कहाँ का मुझमें होंसला
गर्दिश में जिसकी परवान है.. मजबूर सा मैं एक परिंदा
कि वो पेड़ कब के कट चुके.. जिनपे था उसका घोंसला
तेरा चमन गुलज़ार सा.. चहका हुआ, महका हुआ
मैं राह में गिरा गुलाब हूँ.. तेरे क़दम निकलें जिसे रौंदता
जहाँ तुझसे नज़रें हटाता नहीं.. तू खुदी में लबरेज़ सा
मैं सहरा में प्यासा मृग कोई.. ख़ुद को जग में खोजता
तू निकल गया आगे कहीं.. हर मोड़ सही तेरा फ़ैसला
मैं दीवाना खड़ा मलँग सा.. बस तुझे देखता और सोचता
Khubsurat kavita…bahut badhiya.👌👌👌
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