सुकून से हूँ, अदब से हूँ, तस्सली से आराम से भी..
वो दिन गए जब फड़कती थी नस तेरे नाम से ही

अब मुझे सियासत की बातें ज़्यादा दर्द देती हैं..
बिकती है जब मिलकियत कोयलों के दाम से ही

सारे ज़माने को दुश्मन बना कर भी देखा मैंने..
वो ग़ुस्सा कहाँ से लाऊँ जो हूँ अपने आप से ही

मुँह फेर लेता हूँ जब कभी ज़िक्र हो जाता है तेरा..
काश आने पर आँसू उड़ भी सकते भाप से ही

चेहरा जाना पहचाना था पर अक्स अजनबी सा..
अपने कमरे का आईना पोंछ रहा हूँ कल शाम से ही

उसके जाने के बाद की ज़िंदगी की क्या कहूँ शायर..
बस साँस लेने में तकलीफ़ है बाक़ी सब आराम से ही !