कहने को लफ़्ज़ों की तलाश सी है क्यूँ
कल शाम से गले में ख़राश सी है क्यूँ
एक हर्फ़ ना लिखा गया आज सहर से..
काग़ज़ कफ़न और क़लम लाश सी है क्यूँ
देखा तो कल था दूर उड़ता हुआ धुऑं..
फिर आज इस शहर में लगी आग सी है क्यूँ
लगता नहीं इन गलियों में नींदो का अब डेरा..
आखों में फिर ख़्वाबों की प्यास सी है क्यूँ
साफ़ नीयत थी और दुआओं का ख़ज़ाना..
भला उसके घर की शक्ल मज़ार सी है क्यूँ
क्यूँ करते हो रंज का इजहार यूँ शायर..
फिर कहते हो ये दुनिया बेज़ार सी है क्यूँ