एक अरसे से सोया नहीं हूँ मैं
जाने क्यूँ पलके मिलती ही नहीं..
एकटक देखता हूँ खिड़की को तेरी
और वो है की खुलती ही नहीं !
कि क्या पता कब तू आ जाए छत पर
गीले कपड़े झाड़े, सुखाए धूप में..
कुछ फुहारें छन के मुझपे गिरे
देख के तू हँसें, और भी निखरे रूप में ।
देखता हूँ तेरी छत और बँधी तारें..
और ये तारें हैं कि हिलती ही नहीं !
तेरे आँगन से नहीं आती अब आवाज़ें..
ना बच्चों की चिल्लापोह, ना आम के पेड़ का सनसनाना
बस सायं-सायं करती हवा गुज़र जाती हे कभी..
ना हरे साग की ख़ुशबू, ना बर्तनों का खनखनाना ।
फलों से लदा तेरे आँगन में आम का पेड़..
और तू है के पत्थर मारती ही नहीं !
खींज उठती है कभी तो लगता है के मान लूँ..
वो सच.. जो बरसों पहले, जान के भ्रम पाला नहीं था
वो छतों से सिमटे कपड़े, खींचे परदे, बंद रोशनदान..
और ये के तेरे घर के दरवाज़े पर कोई ताला नहीं था ।
Lovely.
LikeLiked by 1 person
Thank you 🙂
LikeLike